आजादी की 75वीं सालगिरह पर जब समूचा देश अमृत महोत्सव के साथ ‘हर घर तिरंगा’ महा उत्सव मना रहा है। तब 38 वर्ष पूर्व देश के लिए शहीद हुए जवान का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर उत्तराखंड के हल्द्वानी पहुंचने वाला है। शहीद के परिवार के साथ ही यह पूरे राज्य वासियों के लिए दुःख के साथ संतोष और गर्व का मौका है। मूल रूप से हाथीखाल द्वाराहाट जिला अल्मोड़ा निवासी शहीद का परिवार वर्तमान में सरस्वती विहार, नई आईटीआई रोड, डहरिया में रहता है। पत्नी शांता देवी उनके शहीद होने से पहले से नौकरी में थी। जबकि बेटियां छोटी थीं। कई वर्षों तक उनके पार्थिव शरीर की असफल तलाश के बाद आखिर उन्हें शहीद घोषित किया गया। पत्नी को उनकी 18 हजार रुपए ग्रेज्युटी व 60 हजार रुपए बीमा के मिले, अलबत्ता परिवार के सदस्य को नौकरी आदि सुविधाएं नहीं मिलीं।


भारतीय सेना द्वारा उनकी पत्नी शांता देवी को बताया गया कि उनके पति शहीद चन्द्रशेखर जी का पार्थिव शरीर सियाचीन बॉर्डर पर बर्फ के नीचे उसी हालत में मिला है जिस हालत में वो उस समय बर्फ के नीचे समा गए थे, और उनका पार्थिव शरीर कल 15 अगस्त के दिन उनके घर पहुँचने की उम्मीद जताई जा रही है।

1984 की इस घटना के चश्मदीद रहे और उनके पार्थिव शरीर को घर वापस लाने की पूरी व्यवथाओं को देख रहे व इस लड़ाई में शामिल रहे सूबेदार मेजर ऑनरेरी कैप्टन बद्री दत्त उपाध्याय ने कहा कि 38 वर्ष बाद स्वर्गीय चंद्रशेखर हरबोला के पार्थिव शरीर का मिलना बहुत बडे़ गर्व का मौका है। इस पर वह बड़ा संतोष और खुद को तृप्त सा महसूस कर रहे हैं। उनके परिवार का भी 38 वर्ष का इंतजार पूरा हो रहा है। अब कोशिश है कि यह इंतजार और लंबा न खिंचे। उन्हें उच्चाधिकारियों ने बताया है कि शहीद का शव आज लेह पहुंचेगा और कोशिश है कि कल 15 अगस्त की शाम तक शहीद का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर नई दिल्ली से होते हुए हल्द्वानी पहुंच जाए।

ऐसे हुए थे शहीद
उन्होंने बताया कि सियाचिन ग्लेशियर पर चीन व पाकिस्तान के स्यालाबिल्ला पहाड़ी की ओर पुल बनाने की सूचना पर ऑपरेशन मेघदूत के तहत श्रीनगर से वह लोग पैदल सियाचिन गए थे। इस लड़ाई में प्रमुख भूमिका 19 कुमाऊं रेजीमेंट ने निभाई थी। स्वर्गीय चंद्रशेखर हरबोला 19 कुमाऊं रेजीमेंट ब्रावो कंपनी में थे और लेंफ्टिनेंट पीएस पुंडीर के साथ 16 जवान हल्द्वानी के ही नायब सूबेदार मोहन सिंह की आगे की पोस्ट पर कब्जा कर चुकी टीम को मजबूती प्रदान करने जा रहे थे। इसी दौरान 29 मई 1984 की सुबह 4 बजे आए एवलांच यानी हिमस्खलन में पूरी कंपनी बर्फ के नीचे दब गई थी। इस लड़ाई में भारतीय सेना ने सियाचिन के ग्योंगला ग्लेशियर पर कब्जा किया था। अब तक 14 शहीद ही मिल पाए थे। जबकि कुछ शहीदों के पार्थिव शरीर अब भी नहीं मिल पाए हैं।

यह था ऑपरेशन मेघदूत
ऑपरेशन मेघदूत, भारत के जम्मू कश्मीर राज्य में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जे के लिए भारतीय सशस्त्र बलों के ऑपरेशन के लिए चौथी शताब्दी में महाकवि कालीदास की रचना मेघदूत के नाम पर आधारित कोड-नाम था। यह ऑपरेशन 13 अप्रैल 1984 को शुरू किया गया। यह सैन्य अभियान अनोखा था क्योंकि दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित युद्धक्षेत्र में पहली बार हमला शुरू किया गया था। सेना की कार्रवाई के परिणामस्वरूप भारतीय सेना ने पूरे सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण प्राप्त कर किया था।

इस पूरे ऑपरेशन में 35 अधिकारी और 887 जेसीओ-ओआरएस ने अपनी जान गंवा दी थी। वहीं, अपने संस्मरणों में पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने कहा था कि पाकिस्तान ने क्षेत्र का लगभग 900 वर्ग मील (2,300 वर्ग किमी) खो दिया है। जबकि अंग्रेजी पत्रिका टाइम के अनुसार भारतीय अग्रिम सैन्य पंक्ति ने पाकिस्तान द्वारा दावा किए गए इलाके के करीब 1,000 वर्ग मील (2,600 वर्ग किमी) पर कब्जा कर लिया था।